नई दिल्ली-12 सितंबर। सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के मामले को संविधान बेंच को रेफर कर दिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ बेंच का गठन करेंगे। ये बेंच 1962 के केदारनाथ फैसले की समीक्षा करेगी। केदारनाथ के फैसले में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए को वैध ठहराया गया था। सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने नए प्रस्तावित आपराधिक कानून के पास होने तक इंतजार के लिए कहा। इस पर कोर्ट ने कहा कि नया कानून आ जाने पर भी भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत दर्ज मुकदमे खत्म नहीं होंगे। इसलिए उसकी वैधता पर सुनवाई ज़रूरी है।
सुनवाई के दौरान केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि जल्दबाजी न करें। उन्होंने कहा कि क्या कुछ महीनों का इंतजार नहीं किया जा सकता। पहले की सरकारों के पास बदलाव का मौका था लेकिन वो इससे चूक गए। य़ह सरकार कम से कम सुधार के दौर में है। तब सिब्बल ने कहा कि बुनियादी तौर पर जो गलत है वह यह है कि सरकार के प्रति असंतोष को राज्य के प्रति असंतोष नहीं कहा जा सकता। राज्य सरकार नहीं है और सरकार राज्य नहीं है।
सिब्बल ने कहा कि 1973 में इसे संज्ञेय अपराध बना दिया गया। उससे पहले यह संज्ञेय नहीं था। इसलिए उन्होंने गिरफ़्तारी शुरू कर दी। तब मेहता ने कहा कि हमने इस मामले में विस्तृत नोट दाखिल किया है। इस मामले में अगली सुनवाई की तारीख दी जाए। मेहता ने कहा कि सरकार के शीर्ष स्तर पर इस पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है लेकिन सरकार ने कहा कि सभी पक्षों से बात कर ली जाए। इस संदर्भ में सरकार के फैसले का इंतजार किया जाना चाहिए। तब सिब्बल ने कहा कि हम इस पर संसद के कानून बनाने का इंतजार नहीं कर सकते नया कानून कहीं अधिक कठोर है।
सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई, 2022 को राजद्रोह के कानून पर केंद्र को कानून की समीक्षा की अनुमति दे दी थी। तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच ने राजद्रोह के तहत फिलहाल नए केस दर्ज करने पर रोक लगा दिया था। कोर्ट ने कहा था कि अगर किसी पर केस दर्ज हो तो निचली अदालत से राहत की मांग करे। कोर्ट ने लंबित मामलों में कार्रवाई पर रोक लगाने का आदेश दिया था। कोर्ट ने कहा था कि जेल में बंद लोग निचली अदालत में ज़मानत याचिका दाखिल करें।
राजद्रोह के कानून के खिलाफ 12 जुलाई, 2021 को मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा और छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैयालाल शुक्ल की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से वकील तनिमा किशोर ने कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए संविधान की धारा 19 का उल्लंघन करती है। यह धारा सभी नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। याचिका में कहा गया था कि केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने भले ही कानून की वैधता को बरकरार रखा था लेकिन अब इसके साठ साल बीतने के बाद ये कानून आज संवैधानिक कसौटी पर पास नहीं होता है।