दिल्ली- 03 जून। उर्दू भाषा कभी भी समाप्त नहीं हो सकती है क्योंकि यह हर किसी के दिलों में रची-बसी है। जिस भाषा में माताएं अपने बच्चों को लोरियां सुना कर सुलाती हैं, वह भाषा अमर हो जाती है। उर्दू भाषा को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की जाती हैं, वह बेबुनियाद है। यह विचार जाने-माने इस्लामिक विद्वान पद्मश्री प्रो. अख्तरुल वासे ने उर्दू डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन के तत्वावधान में दरियागंज स्थित जायका रेस्टोरेंट में आयोजित ‘उर्दू जबानः मकबूल भी, मजलूम भी’ नामक पुस्तक के विमोचन समारोह में व्यक्त किए।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मीम अफजल ने की और मुख्य अतिथि के तौर पर प्रो. शहपर रसूल, मशहूर शायर माजिद देवबंदी, वरिष्ठ पत्रकार मासूम मुरादाबादी मौजूद थे। मंच का संचालन पुस्तक के लेखक वरिष्ठ पत्रकार सोहेल अंजुम ने किया। प्रो. वासे ने कहा कि उर्दू भाषा को लेकर हमेशा यह चिंता जताई जाती है कि यह समाप्त हो जाएगी, लेकिन यह सही नहीं है। इस भाषा को कभी भी खत्म नहीं किया जा सकता है। हां! इस बात की चिंता जरूर की जा सकती है कि इस भाषा के पढ़ने-लिखने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।
मीम अफजल ने कहा कि टेक्नोलॉजी के दौर में हमें उर्दू भाषा को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर ले जाने की जरूरत है। उर्दू अखबारों की दिन-प्रतिदिन घटती स्थिति को देखते हुए हमें वेबसाइट के जरिए इसे डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाना चाहिए। अगर हम ऐसा करते हैं तो हमारे उर्दू अखबारों को दुनियाभर में पढ़ा जा सकता है।
कार्यक्रम में उर्दू डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष डॉ. सैयद अहमद खान ने इस पुस्तक पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में पत्रकार एवं बुद्धिजीवी मौजूद थे।
