भारत

RSS सरसंघचालक ने दिया एकता का संदेश,कहा- भारत की विविधता ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है

सतना- 05 अक्टूबर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने रविवार को कहा कि भारत की एकता को भाषा, धर्म या क्षेत्रीय पहचान से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से देखना होगा। आज जरूरत है कि हम अच्छा दर्पण देखें, वह जो हमें एक दिखाए। उन्होंने कहा कि जो हम घर का कमरा छोड़कर आए हैं, एक दिन उसे वापस लेकर फिर से डेरा डालना है। जो हमारा हक है, उसे हम वापस लेंगे, क्योंकि वह हमारा ही है।

सरसंघचालक डॉ. भागवत आज यहां बाबा सिंधी कैंप स्थित मेहर शाह दरबार के नए भवन का लोकार्पण अवसर पर कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि भारत की विविधता ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। हम सब सनातनी हैं, हम सब हिंदू हैं। पर एक चालाक अंग्रेज आया, जिसने हमें टूटा हुआ दर्पण दिखाया और अलग-अलग कर गया। उसने हमारी आध्यात्मिक चेतना छीन ली, हमें भौतिक वस्तुएं दे दीं और उसी दिन से हम एक-दूसरे को अलग समझने लगे। भारत की एकता को भाषा, धर्म या क्षेत्रीय पहचान से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से देखना होगा। आज जरूरत है कि हम अच्छा दर्पण देखें, वह जो हमें एक दिखाए। जब हम आध्यात्मिक परंपरा वाले दर्पण में देखेंगे, तो पाएंगे कि सब एक हैं। यही दर्पण हमारे गुरु दिखाते हैं, और हमें उसी मार्ग पर चलना चाहिए। ये अवसर भले धार्मिक था, परंतु इसका भाव सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गया। डॉ. भागवत के ओजस्वी शब्दों ने उपस्थित जनसमूह में वह ऊर्जा भर दी, जिसने सबको अपने सनातन स्वरूप की याद दिलाई।

“हम सब सनातनी हैं, अंग्रेजों ने हमें तोड़ा”

अपने संबोधन में डॉ. भागवत ने सबसे पहले इस बात पर बल दिया कि हम सभी अपने भीतर झांके, अपने अहंकार को त्यागे और अपने स्व को पहचाने। “जब हम स्वयं को पहचानेंगे, तभी समाज में परिवर्तन आएगा,” उन्‍होंने कहा, भारत में अनेक भाषाएं हैं, लेकिन भाव एक ही है, मातृभूमि के प्रति प्रेम और एकता की भावना। अपने भाषण के भावनात्मक हिस्से में संघ प्रमुख ने बंटवारे की ऐतिहासिक पीड़ा का उल्लेख करते हुए कहा कि 1947 के विभाजन में जो सिंधी भाई पाकिस्तान नहीं गए, वे वास्तव में अविभाजित भारत के प्रतीक हैं, जो हम घर का कमरा छोड़कर आए हैं, एक दिन उसे वापस लेकर फिर से डेरा डालना है। जो हमारा हक है, उसे हम वापस लेंगे, क्योंकि वह हमारा ही है। उन्‍होंने कहा कि भाषा, भूषा, भजन, भवन, भ्रमण, भोजन ये हमारा चाहिए, जैसा हमारी परंपराओं में है, वैसा चाहिए।

“दुनिया हमें हिंदू ही कहती है”, पहचान छिपाने से नहीं मिटती जड़ें

डॉ. भागवत ने कहा कि कुछ लोग स्वयं को हिंदू नहीं मानते, लेकिन पूरी दुनिया उन्हें उसी रूप में देखती है। “जो लोग खुद को हिंदू नहीं कहते, वे विदेश चले जाते हैं, पर वहां भी लोग उन्हें हिंदू ही कहते हैं। यह उनकी कोशिशों के बावजूद होता है, क्योंकि हमारी पहचान हमारी जन्मभूमि, संस्कृति और जीवन दृष्टि से जुड़ी है, किसी लेबल से नहीं,” उन्होंने कहा, यह कथन भारत की सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक है, यह संदेश देता है कि भारत की आत्मा को न तो सीमाओं से बाँधा जा सकता है, न ही उसे किसी नाम से सीमित किया जा सकता है।

“इच्छा पूर्ति के लिए धर्म न छोड़ो”

इस दौरान सरसंघचालक डॉ भागवत ने समाज को एक गहरी आध्यात्मिक सीख भी दी, “अपना अहंकार छोड़ो और स्व को देखो। काम की इच्छा की पूर्ति के लिए अपने धर्म को मत छोड़ो। जब देश के स्व को लेकर चलेंगे, तो सारे स्वार्थ स्वयं ही सध जाएंगे।” उन्होंने कहा कि धर्म केवल पूजा-पद्धति नहीं है, बल्कि जीवन जीने की एक संपूर्ण दृष्टि है। “जब हम धर्म को अपने जीवन में व्यवहारिक रूप से अपनाते हैं, तभी समाज में सामंजस्य और प्रगति दोनों आते हैं।”

अंग्रेजों की चालाकी, भारत की भूल

डॉ. भागवत ने अंग्रेजी हुकूमत की नीति पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने कहा, “अंग्रेज बहुत चालाक थे। उन्होंने युद्ध से ज्यादा हमें मानसिक रूप से पराजित किया। उन्होंने हमें टूटा हुआ दर्पण दिखाया, जिसमें हम अपने ही भाई को पराया देखने लगे। उन्होंने हमें यह विश्वास दिलाया कि हमारी संस्कृति पिछड़ी है, हमारी परंपराएं अनुपयोगी हैं और इसी छलावे में हमने अपनी आध्यात्मिक चेतना खो दी।” अब समय है कि हम इस टूटी हुई छवि को छोड़कर सच्चे भारत का चेहरा देखें, वह चेहरा जो आत्मनिर्भर, आत्मजागरूक और आत्मगौरव से परिपूर्ण है।

नागपुर से सतना तक एक ही स्वर, एक ही संकल्प—

उल्‍लेखनीय है कि डॉ. भागवत का यह संदेश नया नहीं है, बल्कि निरंतरता का प्रतीक है। उन्होंने हाल ही में नागपुर में विजयादशमी के अवसर पर भी यही विचार व्यक्त किए थे। वहां उन्होंने कहा था कि “भारत को फिर से अपने आत्मस्वरूप में खड़ा करने का समय आ गया है। विदेशी आक्रमणों और गुलामी की लंबी रात के कारण हमारी देशी प्रणालियां नष्ट हो गई थीं, जिन्हें अब पुनः स्थापित करना आवश्यक है।” इसके साथ ही उन्होंने कहा था कि केवल मानसिक सहमति से बदलाव नहीं आता; इसके लिए मन, वाणी और कर्म; तीनों में एकता चाहिए। “संघ की शाखाएं यही कार्य कर रही हैं। यह केवल संगठन नहीं, आत्मजागरण की एक सशक्त प्रक्रिया है।”

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