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Muslim Personal Law Borad ने उत्तराखंड सरकार के समान नागरिक संहिता को अनुचित बताया

नई दिल्ली- 07 जनवरी। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उत्तराखंड सरकार के प्रस्तावित समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक को अनुचित और अनावश्यक करार दिया है। बोर्ड का कहना है कि इस वक्त राजनीतिक फायदा हासिल करने की जल्दबाजी में इस विधेयक को सदन में लाया गया है। यह महज दिखावे और राजनीतिक प्रोपेगेंडा से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता डॉ. सैयद कासिम रसूल इलियास ने मीडिया को जारी एक बयान में कहा है कि जल्दबाजी में लाया गया यह प्रस्तावित कानून सिर्फ तीन बिंदुओं पर केंद्रित है। पहला शादी और तलाक का जिक्र सरसरी अंदाज में किया गया है। इसके बाद विरासत के मामले को विस्तार से दिया गया है। अंत में लिव-इन रिलेशनशिप के लिए एक नई कानूनी व्यवस्था को पेश किया गया है।

उन्होंने आगे कहा कि हमारे देश में स्पेशल मैरिज रजिस्ट्रेशन एक्ट और अन्य एक्ट व कानून पहले से मौजूद हैं, जो इस कानून से टकरा रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह प्रस्तावित कानून संविधान के मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 25, 26 और 29 से भी टकराता है, जो धार्मिक स्वतंत्रता को सुरक्षा प्रदान करता है। इसी तरह से यह कानून देश की साझा धार्मिक संस्कृति के भी खिलाफ है, जो इस देश की खूबसूरती है।

बोर्ड प्रवक्ता ने कहा कि प्रस्तावित कानून के तहत पिता की संपत्ति में लड़का और लड़की को बराबर का हिस्सा दिया गया है जो इस्लामी शरीअत के कानून से भिन्न है। इस्लामी कानून में संपत्ति के बंटवारे पर जिसकी जितनी जिम्मेदारी होती है, जायदाद में उसका उतना हिस्सा होता है। इस्लाम औरतों पर घर चलाने का बोझ नहीं डालता, घर चलाने की जिम्मेदारी सिर्फ मर्दों पर होती है, इसलिए जायदाद में उनका अधिक हिस्सा होता है। यह जिम्मेदारियों के हिसाब से हिस्सा भी बदलता रहता है और ऐसी स्थिति में औरतों को मर्द के बराबर या इससे ज्यादा भी हिस्सा मिल जाता है।

बोर्ड का मानना है कि कानून में दूसरी शादी पर पाबंदी लगाना भी सिर्फ पब्लिसिटी पाने के लिए है। खुद सरकार के जरिए उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार यही सिद्ध होता है कि दूसरी शादी का प्रतिशत भी तेजी से गिर रहा है। दूसरी शादी कोई व्यक्ति तफरीह के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक जरूरत की वजह से करता है। अगर दूसरी शादी पर पाबंदी लगा दी गई तो इसका नुकसान महिलाओं को ही अधिक होगा। आदिवासियों को इस कानून से अलग रखा गया है। उनका कहना है कि उत्तराखंड सरकार का प्रस्तावित कानून अदालतों पर और अधिक बोझ डालने वाला साबित होगा।

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