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दुर्गा पूजा: दशमी के दिन बंगाल में सिंदूर खेल का है अनोखा रिवाज

कोलकाता- 05 अक्टूबर। पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा महोत्सव अंतिम चरण में पहुंच चुका है। पश्चिम बंगाल में ऐसी मान्यता रही है कि महालया को देवी दुर्गा कैलाश छोड़ अपने मां के घर पृथ्वी पर आती हैं और विजयदशमी को वापस कैलाश लौट जाती हैं। दुर्गा देवी की विदाई से पहले बेलूर मठ में विशेष पूजा शुरु हो गई है। संध्या आरती के बाद गंगा में देवी की प्रतिमा का विसर्जन होगा उसके पहले यहां विजयदशमी की पूजा हुई है।

हालांकि राज्य में देवी प्रतिमा विसर्जन से पहले सिंदूर खेल का अनोखा रिवाज है जो यहां की दुर्गा पूजा को बेहद खास बनाता है। सैकड़ों सालों से राज्य के जमींदार घराने और राजवाड़े में मां दुर्गा की पूजा धूमधाम से होती रही है एवं सालों पहले इस सिंदूर खेल की शुरुआत हो गई थी।

देवी दुर्गा के चरणों में अर्पित की जाती है सिंदूर—

– इसमें पूजा मंडप और आसपास की महिलाओं समेत जिन घरों में मां की प्रतिमा स्थापित की गई है वहां बड़ी संख्या में सुहागन सिंदूर को लेकर मां के चरणों में लगाती हैं। उसके बाद उसी सिंदूर से अन्य सुहागन महिलाओं की मांग भी भरी जाती है। साथ ही उसे अबीर की तरह गालों पर भी लगाया जाता है। महिलाएं इसके साथ ही लोक नृत्य करती हैं जिसे धुनुची नाच कहा जाता है। इसमें महिलाएं विभोर होकर भक्ति भाव से नृत्य करती हैं।

दशमी के दिन राजधानी कोलकाता समेत राज्यभर में सिंदूर खेला की धूम है। इसके लिए महिलाओं ने पहले से ही तैयारी शुरू कर दी है। हाटखोला के दत्त बाड़ी में तो अष्टमी के दिन ही सिंदूर खेल संपन्न हो गया है लेकिन कोलकाता के अन्य जमींदार घराने जैसे शोभा बाजार राजबाड़ी, बनर्जी बाड़ी और बोस परिवार में बड़े पैमाने पर सिंदूर खेल की तैयारियां हैं। दुर्गा पूजा के अंत में सिंदूर खेल महिलाओं के लिए बेहद अहम है क्योंकि मां दुर्गा के आशीर्वाद से सुहाग की लंबी उम्र की कामना की जाती है। ऐसी कोई महिला नहीं होगी जो अपने सुहाग को दीर्घायु नहीं बनाना चाहती हो। इसीलिए काफी धूमधाम से यहां यह खेल खेला जाता है।

आबार एसो मां—

– सिंदूर खेल की एक और खासियत है कि इसके जरिए सुहागन महिलाएं मां आदिशक्ति को अगले साल फिर आने का न्योता देकर नम आंखों से विदा करती हैं। हर एक पूजा पंडाल में आयोजित होने वाले इस सिंदूर खेल के साथ ही “आबार एसो मां (फिर आना मां)” के उद्घोष के साथ मां दुर्गा की विदाई की जाती है। पान के पत्तों पर सिंदूर लगाकर मां दुर्गा के गालों को भी स्पर्श किया जाता है। ऐसा नहीं है कि इसमें केवल सुहागन महिलाएं ही शामिल होती हैं बल्कि कुंवारी कन्याएं भी इसका हिस्सा बनती हैं, जिनके गालों पर सिंदूर लगाकर सुयोग्य और दीर्घायु वर की कामना की जाती है। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद शक्ति की देवी भक्तों के सेवा भाव,साधना और भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए कैलाश पर्वत पर लौट जाती हैं।

देवी वरण का है रिवाज—

– सिंदूर खेल और धुनुची नाच की परंपरा में देवी दुर्गा के “वरण” (अपना बनाने) की भी एक परंपरा है। पश्चिम बंगाल में वरण शब्द का मतलब स्वागत होता है लेकिन इसका क्रियात्मक अर्थ देखा जाए, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी को अपना हिस्सा बना लेना। दस दिनों तक देवी दुर्गा की आराधना के बाद विजयदशमी को सिंदूर खेल के बाद मां आदिशक्ति का वरण करने की परंपरा पश्चिम बंगाल में है। इसके लिए देवी को मायके से कैलाश पर्वत के लिए विदाई से पहले जैसे बेटियों को विदा किया जाता है उसी प्रकार की सारी प्रथाएं निभाई जाती हैं। दुर्गा के साथ पोटली में श्रृंगार का सामान और खाने की चीजें रखी जाती हैं ताकि देवलोक तक पहुंचने में उन्हें रास्ते में कोई परेशानी ना हो।

देवी बरन प्रथा में सुहागन महिलाएं एक कतार में खड़ी होकर मां दुर्गा को अंतिम बार अलविदा कहती हैं और जैसे बेटी की विदाई से पहले हिंदी प्रदेशों में “खोंइछा” दिया जाता है ठीक उसी तरह देवी दुर्गा को एक थाली में सुपारी, पान का पत्ता,मिठाई,सिंदूर,आलता और अगरबत्ती सजाकर दिया जाता है। इसके बाद पान के पत्ते से मां के चेहरे को सुहागन महिलाएं पोंछती हैं और सिंदूर लगाकर लाल और सफेद चूड़ियां पहना कर विदाई दी जाती है।

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