
मजदूर की हो रही है पूरे भारत में सराहना
‘मज़दूर’
माँ भारत की कोख का नूर हूँ।
मैं मजदूर नहीं,बल्कि मजबूर हूँ।।
हर हाल में चलना हमने जाना है।
शोषकों ने कब हमें पहचाना है।।
बडी़-बडी़ चुनौतियों को हमने स्वीकारा है।
बताओ कब ज़मीर हमारा हारा है।।
हो कितना भी कर्म कठिन, करने की हिम्मत हम रखते हैं।
पता है हमको सुख भोग के लिए घर में बीबी-बच्चे तरसते हैं।।
हालातों के आगे कभी-कभी मगरूर हूँ।
मैं मज़दूर नहीं,बल्कि मजबूर हूँ।।
कभी किसान की खेती का सहारा हूँ।
कभी बडे़-बडे़ फर्मों का रखवारा हूँ।।
पेट की भूख का कारण हूँ,
हर समस्या का निवारण हूँ;
दया,याचना,निंदा और उपेक्षा भी मैंने पाई है।
कर्मरत होकर के स्वाभिमान की लाज बचाई है।।
बस इसी भाग्य का दस्तूर हूँ।
मैं मजदूर नहीं,बल्कि मजबूर हूँ।।
शोषकों का शोषित हूँ,महामारी से पीडित हूँ।
हो कठिन कितना भी जीवन!संघर्षों से जीवित हूँ।।
है कर्म प्रधान दुनिया में,बुद्ध और गीता से हमने जाना है।
कितनी भी हों दुष्कर राहें,चुनौतियों को हमने माना है।।
कालमार्क्स,अम्बेड़कर और गाँधी के सपनों का कोहिनूर हूँ।
मैं मज़दूर नहीं,बल्कि मजबूर हूँ।।
न किसी के मार्ग का काँटा हूँ,पर सबने बाँटा हूँ।
हाय!विडम्बना जीवन की,
दिया जो नाम विधाता ने उसे करता मैं मंजूर हूँ।
मैं मज़दूर नहीं,बल्कि मजबूर हूँ।।
स्वरचित- पुष्पेन्द्र सिंह ‘कर्दम’